|| मलहवा ||

खगल मलहवा खन कोशी,
खन कमला केर तीर
टहलल फिरैए  भोर साँझ 
ओ पहिरि पंचरंगा चीर ।। 
 
घुमा क फेकए बोझ परिवारक, 
घिचए उमेदक जाल।
रौदी, गरमी, खाली पैरे घूमए 
सगरो  हाल बेहाल।।

रोहुक फ'री देखि जाल में ओकरा 
आँखिक बढ़ल इजोत 
तखनहि मुखिया दौड़ल अयला, 
धएलनि सोझे ओकर ठोंठ ।।

माँछे सन आई तड़पि रहल छल 
ओहि मलहा के मोन 
भुखले सूतत फेर नेन्ना सब  
जुड़तै  कोना क नोन।।

यएह अदिष्ट मे लिखल जकरा 
तकर ने  कोनो मोल 
हाड़ तोड़ि मेहनति कैलहु पर 
विपत्तिक पैघ संगोर !!

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