चलु अन्तिम साँस धरि लडाइ लडब सङ्गी ।
अपन हक-अधिकार, लऽ एके रहब सङ्गी ॥
जतबे दमन-शोषण, ततबे अन्याय भऽ रहल ।
शपत मातृभूमीके, जुनि आब सहब सङ्गी ॥
जनम लऽ ऐ धर्तिपे,गर्व करै सन्तति अपन ।
इत्यहासके साहित्य एहेन कऽ गढब सङ्गी ॥
असन्तुष्टीके ज्वाला धधकि रहल छै सगरो ।
न्यायकऽ खातिर मारब, चाहे मरब सङ्गी ॥
बगुलाके रुप छोडि, अजिङ्गर बनि आब ।
एक-एकटा पापीके छातीमें डँसब सङ्गी ॥
लेखक : विद्यानन्द वेदर्दी
राजविराज, सप्तरी ( नेपाल )
अपन हक-अधिकार, लऽ एके रहब सङ्गी ॥
जतबे दमन-शोषण, ततबे अन्याय भऽ रहल ।
शपत मातृभूमीके, जुनि आब सहब सङ्गी ॥
जनम लऽ ऐ धर्तिपे,गर्व करै सन्तति अपन ।
इत्यहासके साहित्य एहेन कऽ गढब सङ्गी ॥
असन्तुष्टीके ज्वाला धधकि रहल छै सगरो ।
न्यायकऽ खातिर मारब, चाहे मरब सङ्गी ॥
बगुलाके रुप छोडि, अजिङ्गर बनि आब ।
एक-एकटा पापीके छातीमें डँसब सङ्गी ॥
लेखक : विद्यानन्द वेदर्दी
राजविराज, सप्तरी ( नेपाल )